Wednesday, September 19, 2012

गणेश चतुर्थी के मंगल गणेश चतुर्थी के मंगल पर्व पर !

 गणेश चतुर्थी के मंगल पर्व पर सभी को हार्दिक बधाई! 

साथ ही यह प्रार्थना है कि ....







  हे गणपति बप्पा ! 
  
  हम  सभी जन को सदबुद्धि  दें !
 
  हम  सभी के जीवन से समस्त विघ्नों को दूर करें एवं  रक्षा करें  !

   हम  सभी को सुखदायी रिद्धि - सिद्धि प्रदान  दें !

   हम सभी पर  अपनी सदा मंगलदायी कृपा बनाए रखें !

   और हमें अपनी पावन सच्ची भक्ति प्रदान करें !


    हे गणपति बप्पा!  हे दयानिधि !  

    आपको मेरा बारम्बार कोटि कोटि नमन है  !





मीनाक्षी श्रीवास्तव 

Tuesday, September 18, 2012

ओ रे पिया .....


ओ रे पिया .....



ओ रे पिया, सावन ऋतु आई,
पलकें बिछाये, तेरी राह निहारूं
ओ रे पिया.....

बेला चमेली जूही 'रातरानी' 
महकी कलियां मस्त दीवानी 
हरसिंगार ने 'सेज'  सजाई  
पुरवैया ने ली फिर, अंगडाई  

ओ रे   पिया.....


भोर भये  बागों  को  जाऊं
चुन-चुन फूलों का हार बनाऊं
मंदिर में जा के प्रभु को पहनाऊं
कर विनती मैं, तो  'कर'  जोरी

ओ  रे पिया...........


 हाथों में हरी-हरी मेंह्दी लगाके
बालों में फूलों का गज़रा सजाके
भरी-भरी चूड़ियां बांहो में खनके
सम्भल ना पाये, उड़े चुनरी मोरी

ओ रे पिया..............

दादुर बोले ,  मुरला  नाचे
पियु - पियु टेर पपीहा लगाये
सुन-सुन ज़ियरा में आग जगाये
कल ना पड़ेबनी मैं, तो बावरी

ओ रे पिया...............

सब सखियन के पिय घर आये
बिदीं - चूड़ी  औ  चुनरी  लाये
अमुवा की डाली पे  झूला झूलें 
मन-हिंडोला,मेरो थम पाये ना,री

ओ रे पिया........

 सांझ भये बदरा  घिर आये
रह-रह गरजे, बिजली चमके
धक-धक जियरा धड़के  जाये
नींद ना आये,आजा तू हरजायी

ओ रे पिया.........



मीनाक्षी श्रीवास्तव 

"आशा की किरण और स्मृतियों के संग "


"आशा की किरण और स्मृतियों के संग "
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यहाँ ' उन माँ ' की स्थिति को दर्शाया गया है ; जब उनके बच्चे पढ़ने या नौकरी करने अथवा व्यवसाय या फिर किसी अन्य.. कारण से  किस तरह से..उनसे ..इतनी दूर हो जाते हैं ; कोई देश -कोई विदेश में अपना  काम करते हैं .   कुछ तो साल दो साल में आ जाते है और कुछ वहीँ के हो कर रह जाते. आज भी कितनी ऎसी माताएं हैं जिनके बच्चे विदेशों में हैं वर्षों से घर नहीं आये. ना कोई खबर ली .. ना अपनी भेजी ...

"वे बेचारी माँ ना कंप्यूटर जानतीं है ना नेटवर्किंग का चमत्कार ....बस एक आशा की किरण के साथ और उन तमाम स्मृतियों के भरोसे  अपना जीवन जीये चली जा रही होती हैं...

"यद्यपि  उनमें से कुछ माँ  बहुत पढ़ी -लिखी हैं किन्तु कंप्यूटर से परिचित नहीं हैं और..कुछ..ने शायद जीवन के अनुभव से बस चलने की कोशिश की...... और जो इस नई क्रान्ति से अवगत हैं ; उनकी बात दूसरी हो सकती है...


एक अवस्था ऐसी भी आती है ;  जब जितना  जी चाहे सोया जाए ..ना काम ऐसे  काम रहतें है ना कोई फ़िक्र. फिर भी बेफिक्री की फ़िक्र ' नींद पर मानो पहरा लगा देती है . करवटें बदलते-बदलते हर रोज ना जाने कितनी बीती बातों की यादें..उनकी तस्वीरें ..आँखों के सामने एक चलचित्र की भाँति चलने लगती है और..फिर..भला नींद आये तो कैसे आये...? उन यादों में जीना शायद बहुत अच्छा लगता है..क्योंकि  यह तो उसके कब्जे में है...यह उससे दूर......परायी नहीं हुई ; समय के इतने अंतराल के बाद भी....  अन्य की तरह.

 निम्नांकित - पंक्तियाँ...ऐसा ही कुछ  बयां कर  रहीं हैं......



ना जाने क्यों नींद नहीं;
आती है,' उसको' रातों में,

दिन तो सारा कट जाता है,
गृहस्थी,गीता रामायण में ,

पर नहीं कटतीं लम्बी रातें,
याद आती सब बीती बातें,

किसी रात वह नन्ही होती,
मां उसको  दुलराती  होती 

कभी सखी संग खेलती कूदती ;
और कभी फिर झूला झूलती .

किसी रात जब स्कूल में होती,
क्लास में टीचर पढाती होती,

कभी परीक्षा हाल में  होती,
बड़ी जल्दी कापी में लिखती 

कभी रिजल्ट आने की आहट  
न्यू कालेज  जाने की चाहत

पढ्ते लिखते बोर हुई  ज्यों
बस लगता यूं भोर हुई त्यों
    

फिर बीती ज्यों  दिनचर्या  
याद आयी वो भूली  चर्चा

ब्याह हुआ नई वधू’   बनी
मात - पिता से दूर   हुई

कौन जाने ये रीति  बनाई ?
आज भी तनि न रास आई   

'पीहर’ की रह-रह याद  सताये
पीघर में कित मन को लगाये      

फिर आ गये वे प्यारे बच्चे
नन्हें - मुन्ने सबसे अच्छे

कभी उन्हें होमवर्क कराती
कभी ज्ञान का पाठ पढ़ाती 

याद आया जब पहली  बार
बच्चे ने छोड़ा  था घरद्वार    

खाना - पीना  छूट गया  था
बच्चे का भी  हाल यही था

पढ्ने गया है घर से  बाहर
बन पायेगा "कुछ" तब  जाकर   

 हमने खुद को सम्भाला फिर
खूब उसे  भी समझाया  था

पत्र  फोन में बातें  करते
बीते कितने दिन और रातें  

हुआ सेलेक्शन माना सुखद था
यह सब मन को भाया बहुत था

कम्पनी बढ़िया 'पद' भी बढ़िया
सब शहरों में शहर था  बढ़िया 

पर ये क्या कुछ समझ ना आये
'बच्चे' ने तो दिन - रात ना जाने   

काम ही काम  भरमार  रहे   
कुछ  कम्पनी  बदमाश लगे    

बढ़  जाती  है  इतनी  दूरी
फ़ोन से बात भी लगे अधूरी                                             

साल में एक बार घर 'वो' आए  
होली या  फिर  दीवाली   होए  

फिर कुछ ऐसा 'काम' थमाया
विदेश जाने का  मार्ग दिखाया 
    
      सुन खबर माँ  घबराई  थी 
      शान पिता ने दिखलाई  थी  

बेटे ने माँ  की पीड़ा  समझी 
बहु- विधि आस- ख़ास बंधायी  
      
समझ गयी 'उसकी' मजबूरी 
अपने 'लाल' से बढ़ती दूरी 

पहले दो-चार साल में आया 
फिर मित्रों से 'कुछ' पहुंचाया 

बरसों बीतें बिन घर  आए 
मानो वहीं  परिवार  बसाए   

बदली - दुनिया बदले  लोग 
नहीं बचा कोई ममता - मोह 

पर माँ का दिल है 'कुछ' ऐसा ,
नहीं जमता मन-मैल कुछ 'वैसा' 

दिन-रात दुवाएँ माँगा करती 
बुरी बलाएँ सब दूर  भगाती

आस के दीप की लौ  बढाए    
और द्वारे पे टकटकी  लगाए   

यादें भी क्या चीज है सांची
लगे आज भी  वैसी  ताज़ी 

ना जाने क्यों नींद  नहीं;
आती है,' उसको'  रातों में,

दिन तो सारा कट जाता है,
गृहस्थी, गीता रामायण में.


  

मीनाक्षी श्रीवास्तव